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Wednesday, October 14, 2009

वो लम्हे

अगर कुछ देना ही है तुझे ,
तो दे दे मुझे मेरी वो हँसी,
जो बचपन में थी ....
जब हर बात पे हँसता था मै ....

कुछ देना ही है तुझे
 तो दे दे मुझे मेरे वो बचपन के साथी ..
जो हर वक्त साथ थे मेरे ...
वो खुशी हो या गम.....
मेरे साथ ही हस्ते थे ..
मेरे साथ ही रोते थे....

कुछ देना ही है तुझे ,
तो दे दे मुझे मेरे वो मिट्टी के खिलोने ,
जिनमे जान न थी ..
पर उनमे मेरी जान थी ..
उनके टूटने पे होता था दर्द मुझे ..
करता था उनकी पट्टी ..
अपने हाथो से ....
और फिर अपने दोस्तों को बताना की ,
आज मेरी गुडिया की एक टांग टूट गयी ..
और उनकी हमदर्दी अच्छी लगती ....

अगर कुछ देना है तो मुझे ......
कर दो मेरा बचपन मुझे नसीब..
ओ मेरे "रकीब" 

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