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Saturday, October 24, 2009

वो मेरी समझ

वो साहिल, साहिल न था जिन्हें हम साहिल समझे ,
वो भवर से भी ज्यादा गहरा था ,

वो कली, कली न थी जिन्हें हम कली समझे ,
वो कांटे से भी कटीली थी ,

वो कश्ती कश्ती न थी जिन्हें हम कश्ती समझे ,
वो कश्ती कागज की कश्ती से भी नाजुक निकली ,

वो सफ़र,सफ़र न था जिस पे हम हमसफ़र खोजने निकले ,
वो सफ़र मेरा अंतिम सफ़र निकला ,

ऐसे ही लोग आते रहे !!!!!!!!! मिलते रहे !!!!!! और जाते रहे !!!!
ऐसे ही हर बार मुझे समझाते रहे ,

मै समझता रहा उन्हें कुछ और
वो कुछ और ही समझाते रहे ,,,,,,,,,,