Tuesday, October 26, 2010
आज बिखरा है सन्नाटा,
आज बिखरा है सन्नाटा,
मेरे चारो ओर,
कोई भी नहीं है यहाँ,
सिवाय अकेलेपन के,
मेरे मन के रातों के झिंगुर,
भी जैसे खुद को चिढ़ा रहे हो,
खुद अपनी ही आवाज को सुनके,
अपना मन बहला रहे हो,
फैली है चारो ओर नीरवता,
कैसे करेगा कोई कविता,
शब्द भी निकलने से पहले,
सोचते है सौ बार,
बहार निकलकर गूजुँगा मै अकेला ,
या होगा बेड़ा पार,
हर बार यही सोचकर चुप रहता हूँ,
और बिखर जाता है सन्नाटा,
मेरे चारो ओर, मेरे चारो ओर ............................
Saturday, October 9, 2010
'अंजाम - ए - वजू'
वो पूँछ बैठा मुझसे
मेरी मंजिल का पता
मै तो सफ़र में मशगूल था
मंजिल का मुझको क्या पता
बस ये ही मेरा कसूर था
मेरे सफ़र की शुरुआत थी या उसका अंत
कुछ भी तो मुझको न था पता,
मुझे तो साथ-साथ चलना था उसके
ये ही मेरी आरजू थी
मंजिल तो आनी ही थी
जब हमसफ़र ऐसा हसीन था
न जाने क्यू,
बीच सफ़र में उसके कदम डगमगाने लगे,
हाथों में पसीना, चेहरे पे भाव डगमगाने लगे
दस्तक देने लगी थी रुसवाईया
सफ़र में मेरे ,
" जो अभी शुरू ही हुआ था"
अभी तो और भी सफ़र
चाहता था तय करना
पर क्या पता था
ये मेरा उसके साथ आखिरी सफ़र होगा "
''मै कस के थामे खड़ा था,
अब तक जिस दामन को.
समझ के अपना दामन,
वो छुटने लगा था , मेरे हाथो से कुछ ऐसे
बन के बिगड़ रहे हो, तेज नशीली आंधियो में,
रेत के टीले जैसे''
मै सफ़र में अपने अभी चंद कदम ही चला था
जिसे अपनी मंजिल का धुंधला सा "अक्स " दिखा ही था
वो फना हो रहा था टुकडों - टुकडों में
ये ही उस सफ़र का 'अंजाम - ए - वजू' था
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