मेरी अधूरी जिंदगी
जो मेरे मन की टूटी हुई खिड़कियों के
सीखचों से बाहर झाकती,
आजाद हो जाने को
कही दूर चले जाने को ,
जिसे कैद कर रखा हैं
मैंने अपने ही अंदर
घुप्प अंधेरो में,
जहाँ घुट रही है
अंदर ही अंदर ,
बेहद निरास, बेहद हतास
मेरी जिंदगी,
मै करवटे तो बदल रहा हूँ
पर खुद की
जद्दोजहद की,
जो खुद अपने आप से हैं
जहा लड़ रही है
मेरी जिंदगी ;
कभी न बदलने वाले उसूलो से
यहाँ बर्फीली तेज हवाये
जला रही है मुझे
दावानल के जैसे,
जबकी मेरी जिंदगी
झांक रही है, छटपटा रही है
मेरे मन की टूटी हुई खिडकियों के सीखचों से बाहर
कही दूर जाने के लिए,
मेरी जिंदगी
जी रहा हूँ फिर भी
मै ये अधूरी जिंदगी
अमरेन्द्र ' अमर '