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Monday, August 29, 2011

"वो आना तो चाहती थी !"



उसने  छिपाया  तो बहुत 
पर छुपा  न  पायी  
चेहरे की लाली 
सुर्ख आँखों  से बहे  काजल  का पानी 
वो छिपा  न  पायी  


यु  तो भूली  
वो सारी  कहानी 
बस  दो  पल  कि कहानी  
दर्द में डूबी 
पूरी जिंदगानी भुला  न  पायी 



गयी तो थी 
रात के  घोर अन्धियारें  में 
घर की चार दिवारी लाँघ  कर 
नहीं  पता  था उसे 
कि वो जिसे  लाँघ  कर जा  रही  है  
वो चार दिवारी उसके  घर  की नहीं  
उसके  माँ- बाप  की जीवन  रेखा  है  


किसी के  प्यार  में 
बन्द हो गयी  थी आँखे  
उसकी  
या ,  
खुल  गया  था समाज  का  मुहं 
उसके  लिए  
इन सब से वो अनजान थी 

वो तो बस  जाना  
चाहती थी 
ये सारे  बंधन  तोड़  कर 
किसी ओर  से जोड़ने  के  लिए  


वो चली भी गयी 
छोड़  गयी  
अपने  पीछे  
बहुत कुछ अनकही सी कहानियाँ 

दो  दिन  भी  न  सह  सके  
ये वज्रघात 
उसके  माँ  बाप ....................


बेचारी क्या करती 
वो आना तो चाहती थी 
वापस वही 
जहाँ से चार दिवारी ,
लांघ कर गयी थी
उस काली रात 

पर उसे अहसास हो चला था 
कि रात के सन्नाटे में चार दिवारी लांघना 
आसान  है     
पर 
दिन   के   उजाले   में,
सब   के   सामने , 
अपने  ही घर   के   दरवाजे  से 
भीतर  आना बहुत  मुश्किल  है   

                                       अमरेन्द्र 'अमर'