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Thursday, December 13, 2012

मैं एक औरत हूँ


सच,
यही बात है न, की,
मैं एक औरत हूँ
बस यही कसूर है मेरा

बस इसीलिए
मेरा सच्चा स्वाभिमान
तुम्हारे झूठे अभिमान
के आगे न टिक सका

मुझे झुकना ही पड़ेगा
तुम्हारे
झूठे दंभ और अहंकार के आगे

सदियों से यही होता आया
सीता ने राम के लिए
तो
राधा ने श्याम के लिए
क्या कुछ न सहा

फिर मेरी क्या बिसात
तुम्हारे आगे,

फिर भी
हर बार,
बार-बार,
आना ही होगा
तुम्हारे आगोश में

यह जानकार भी
ये कुछ पल का चैन
जिंदगी भर का सकूं छीन लेगा

मैं एक औरत हूँ न
बस
झुकना ही होगा
कभी तुम्हारे तो कभी
तुम्हारे झूठे स्वाभिमान के आगे ----------

अमर=====
 

Thursday, November 22, 2012

भूली -बिसरी यादें





"मैं कोई किताब नहीं,
जिसे जब चाहोगे, पढ़ लोगे तुम
मैं कोई असरार नहीं,
जिसे जब चाहोगे, समझ लोगे तुम ,
मैं हु, तुम्हारे दिल की धड़कन,
जिसे सुनना भी चाहो, तो न सुन सकोगे तुम

कितना ही शोर, हो, तुम्हारे चारो तरफ
न सुन सकोगे तुम ,
कितनी ही उजास हो तुम्हारी रातें,
न सो सकोगे तुम,
पल भर में खीच लायेंगी,
तुम्हे हमारी यादें,
एक पल भी बगैर हमारे,
न रह सकोगे तुम,

मैं हूँ समेटे, अपने दिल में प्यार का दरिया, तुम्हारे लिए
किसी रोज लौटा, तो बहने से, खुद को, न रोक सकोगे तुम"

अमर====
 

Thursday, August 23, 2012

"मेरी बेटी-मेरा प्रतिबिम्ब"


"मेरी बेटी-मेरा प्रतिबिम्ब"

साँसें ठहरी रही,
मेरे सीने में
एक लम्बे अरसे तक,
जैसे,
एक तेज महक की घुटन ने,
मानो जिंदगी को जकड रक्खा हों,

मैंने भी ठान रक्खी थी जीने की,
और अपने आप को (मेरी बेटी) जिन्दा रखने की,

इसी जद्दोजहद में ...
मुझ पर हकीकतों के लबादे चढ़ते रहे,
और मेरे आँगन में अहिस्ता-अहिस्ता कस्तूरी महकती रही
ये बात और है की भूख के निरंतर दंश ने
उसे एक तेज़ सीली चुभन सा बना दिया था
क्योंकि भूख यक्ष सी होती है
और जिसका प्रतिकार लगभग असंभव सा होता है ,

आँख - मिचौली के इस खेल संग
मेरी कस्तूरी (मेरी बेटी) भी आज सोलह की खुशबू से महक उठी
मै एक बार फिर सहम उठी हूँ
वर्षों पहले के घटनाक्रम की पुनरावृत्ति के डर से
जब अपनों ने ही मनहूसियत के ठप्पे के साथ मुझे पराया कर दिया था
बेघर और बेसहारा भी .....,

क्या बेटी कोई गुनाह है ..
या फिर मै अकेली ही वजह हूँ इसकी ....
फिर सज़ा मुझे ही क्यों ....
इसके जवाब का उत्तरदायित्व एक बड़े प्रश्नचिन्ह के साथ
मैंने समाज को (आप सबको) सौंप दिया है ,

और आज मै ...एक औरत ..एक माँ ने
अपनी बेटी को सम्मान सहित विदा करने का हौसला भी दिखाया है ,

अब मै एक बार फिर अकेली हूँ
पर आज पूरे आत्मसम्मान और संतुष्टि से गौरवान्वित भी !!!
अमर====
 

Monday, August 6, 2012


हमारे रिश्ते, 
जैसे लोथड़े हो मांस के 
खून से सने, लथपथ....
बिखरे, 
सड़क किनारे ...
 
जिन्हें देखते, हम
अपनी ही बेबस आँखों से 
बहता हुआ......

वही कुछ दूर पे बैठा 
हाफंता,
इक शिकारी कुत्ता ,
जीभ को बाहर निकाले
तरसता भोग -विलासिता को .......

बचे है 
पिंजर मात्र,
हमारे रिश्तो के .......
जिनमे अब भी
कही-कहीं,
लटके  है 
हमारे विश्वास के लोथड़े .....

जिन्हें कुरेद कुरेद के नोचने को, 
बेताब,
बैठा कौवा 
कांव-कांव करता ,
इक सूखी डाली पर...... 

दिलो में अभी भी ज़मी गर्द 
जिन बेजान रिश्तो की, 
उन्हें भी ,   
चट कर जाना चाहता है,
दीमक,
अपनी कंदराओ के लिए 

कहाँ खो गए है 
हम इन रिश्तो के जंगल में 
जहा सब दिखावा है 
छुई-मुई सी है जिनकी दीवारें 
जो मुरझाती है अहसास मात्र 
छुवन से ही ....

कोई आये बीते दिनों से 
जहाँ, 
आज भी इक आवाज काफी है 
अंधेरो में उजाले के लिए 

दौड़ पड़ते है रिश्तो के 
बियाबान - घनेरे जंगल 
लेकर उम्मीदों की मशाले
कैसा भी हो मायूसी 
पल भर में ही हो जाता है उजाला 

ये कैसे रिश्ते है जो 
छूटते  भी नहीं और टूटते भी नहीं .........


अमर =====

Saturday, June 30, 2012


'सफ़ेद हंस' 

इक दिन
रह जाओगे ,
समुंदर में मोती की तरह 
बेशकीमती, पर,
कैद अपने ही दायरे में 
अपनी ही तनहाइयों के साथ ..........

कितनी ही परते 
चढ़ी होंगी तुम पर ,
कितने ही कठोर 
बन चुके होंगे तुम 
फिर भी 
ढून्ढ ही लेगा मोती चुगने वाला 'सफ़ेद हंस' 
तुम्हे, 

तोडकर तुम्हारा अभिमान 
बिखरा देगा 
धरातल पर , 
पल भर में तोड़ देगा,
तुम्हारा झूठा गुरुर 

सोच कर वो दिन 
मै आज से हैरान हूँ, 
तुम मेरे लिए न सही 
मै तुम्हे सोचकर परेशान हूँ ........

===="अमर"====
30.06.2012 

Tuesday, June 26, 2012



मेरे घर का वही 
जाना पहचाना एहसास आज भी है, 
जैसा तुम्हारे जाने से पहले था 
बस,
तुम्हारे जाने के बाद 
अब वो बहार नहीं आती...... 
हा खिल जाते है कभी कभी
तुम्हारी ही यादों के सतरंगी  फूल 
और खेलते है मेरे साथ, तुम्हारी ही तरह, 
जैसे की तुम खेला करती थी
 
जैसे ही मै उन्हें अपने ख्वाबों में 
सोचना चाहूँ, 
न जाने कहाँ चले जाते है 
शायद छिप जाते है, या 
चिढाते है मुझे 
जैसे कह रहे हो, 
ढूंढ सकते हो, तो  
ढूंढ लो मुझे, 
मै तो तुम्हारा अपना  हूँ, 
तुम अपनी ही चीज नहीं ढूंढ सकते, .........

हर बार 
बार बार मै थक सा जाता हूँ 
ढूंढते-ढूंढते,
निस्तेज से हो जाते है मेरे प्राण 
सिहर उठती है मेरी रूह, 
और तब,
जब दिए में रौशनी इतनी धीमी हो जाती है 
की अब बुझ ही जाएगी ........
वो खुद बा खुद सामने आकर 
अहसासात कराते है, मेरे कमजोर मनोभावों को 
जिसमे इक सिरे पर "तुम्हारी रूपरेखा" 
और "दुसरे पर उपसंहार" 

"मेरे मन का वही कोना 
जहा जन्म लेते है तेरी यादों के दो सतरंगी फूल"

=====अमर===== 

Wednesday, June 20, 2012


मेरी साँसों के स्पंदन 
तेज होने लगे है,
जब से,
चिर-परिचित कदमो की 
आहट सुनाई दी है 

वो आयेंगे न, 
या, ये  मेरे मन की मृग-मरीचिका है, 
मेरे कानो ने, सुनी है जो आहट
कही वो दूर से किसी का झूठा आश्वाशन तो नहीं 
कही मेरी प्रतीक्षा 
मेरा विश्वास
सब निराधार तो नहीं,.........

नहीं उन्हें आना ही होगा 
उन्हें मजबूर होना ही पड़ेगा
कृष्णा भी तो आये थे 
मथुरा से वृन्दावन
अपनी गोपियों से मिलने
मै भी तो उनकी रुक्मणी हूँ.......... 
मुझे उनके साथ ही रहना है 

वो आयेंगे जरुर आयेंगे, 
मेरा विश्वास, 
मेरी आराधना,   
यूँ ही व्यर्थ नहीं जाने देंगे वो, 
उन्हें भी अहसास होगा 
मेरे विरह की पीड़ा का, 
मेरे करुण क्रंदन का, 
कुछ तो मोल होगा 
उनकी निगाहों में, 
मेरे आंसुओ का...
उनके बहने से पहले 
वो मेरी बाँहों में होंगे  
मै उनकी पनाहों में.....

मेरी साँसों के स्पंदन 
तेज होने लगे है,
जब से,
चिर-परिचित कदमो की 
आहट सुनाई दी है,

====अमर===== 

Wednesday, June 6, 2012


दूर, बहुत दूर, 
मेरी यादों के झुरमुटों में 
झीने कपड़े से बंधा 
मेरी साँसों के सहारे 
तेरी यादों का वो गट्ठर,  
जिन्हें वक्त के दीमक ने 
अंदर ही अंदर खोखला 
कर दिया है,
बचा है जिसमे
सिर्फ और सिर्फ ,
मेरी अपने अकेले की साँसों का झीनापन 
जो शायद , किसी भी वक्त, 
निकल कर गठरी से 
तड़पने लगे ,

वही कुछ दूर पे ही 
बैठे है 
भूखे ,प्यासे, कुलबुलाते 
चील और गिद्ध , 
जो न जाने 
कब से इसी आस में है 
की कब मेरा बेजान होता जिस्म 'बेजान' हो 
और वो अपनी भूख मिटा सके......

निरंतर,
दिन प्रतिदिन 
खोखले होते बिम्ब, 
दिखने लगे है.... 
झीना कपडा भी हो रहा है जार-जार
फिर भी लोग आकर्षित होते है, 
मेरी ख्वाहिशे देखने को, ... 
न जाने क्यूँ ....
शायद, 
कैद करना चाहते हों, अपने-अपने कैमरो में 
सजाना चाहते है 
पेंटिंग्स की तरह, अपने घरो में  
इससे पहले शायद ही, उन्हें 
किसी के सपने 
ऐसे भरे बाजार तड़पते दिखे हों 
"तेरी यादों का वो गट्ठर" 

अमर*****

Tuesday, May 29, 2012

"भूल जाना मुझे सदा के लिए"

मै कोई कविता या रचना लिखकर आपके सम्मुख प्रस्तुत नहीं कर रहा हूँ , अपने आस पास की इक कडवी सच्चाई बयाना कर रहा हूँ 






१. 
अधूरी जिंदगी के,
तन्हा सफ़र में 
कल यु ही, 
याद आ गयी, 
"तुम्हारे साथ बीते 
उन अप्रतिम पलो की 
जो याद हैं मुझे,
कभी न भूलने के लिए 

"जैसे ,
हमारी वो,  पहली मुलाकात, 
बारिश की रिमझिम फुहारे
जिनमे बरसा था कभी 
तेरा-मेरा प्यार"

"पास आना तुम्हारा 
चुपके चुपके धीरे धीरे,
सबके सामने,
हौले  से कहना 
"मै प्यार करती हूँ तुमसे "
"मेरे नयनों के धारे मंद मंद मुस्कुराते बहने लगे "

२- 
मुझे याद है वो दिन भी 
वैसी ही गरजती रातें 
वैसी ही बरसती रातें 
तुम्हारा रूठ कर जाना 
घर से, 
और .......
दोबारा फिर न मिलना 
और मिलना भी तो कहाँ ?
जहाँ टूटते है रिश्ते पल भर में 
जहाँ रिश्ते बचाए नहीं जाते, 
सिर्फ तोड़े जाने के लिए बहस होती है
"अदालत",
वो ही लोग
वो ही गवाह 
वैसा ही लोगो का हुजूम, 
जो साक्षी थे 
कभी हमारे मिलन के, 
आज हमारे विरह  के साथी बनेंगे, 
और अंत में, 
"बस दो पल के लिए पास आना तेरा 
कहना भूल जाना मुझे सदा के लिए "
"मेरे नयनों के धारे मंद मंद हिचकिचाते बहने लगे "
जो शायद ही जल्दी रुके,
अमर*****




Monday, May 21, 2012


न जाने कैसे लोग बदल जाते है 
पर सच है, वक्त के साथ सब लोग बदल जाते है 

जो मेरे हमनशी, मेरे कह्कशी थे कभी  
अब तो उनके भी तरकश-ए-तीर बदल जाते है 

गम ये नहीं की, वो  मेरी साधना की प्रतिमा न बने 
गम  तो इस बात का है , 
कि अब तो उनके भी,
कभी शिव, तो कभी शिवालय बदल जाते है 

हर बार इल्जामात  का तमगा दिया उसने, मुझको, खुद बेवफा होकर 
मैंने देखा है, अब तो, उसके भी कभी दरिया, तो कभी साहिल बदल जाते है 

वो  मेरे रकीब, मेरे रहबर, मेरे खुदा बने थे कभी 
वो आज सिर्फ पत्थर का बने बुत नजर आते है 

गम नहीं इसका की भरी महफ़िल रुसवा किया उसने,   
गम इस बात का की वो ही तमाशाई नजर आते है ..

मेरे संबंधो की दी दुहाई उसने मेरे दायरे में आके, 
अब तो, हम जब भी मिलते है "मेरे- उनके रिश्ते बदल जाते है" 
अमर****

Monday, April 16, 2012

मेरी किताब के वो रुपहले पन्ने



ये कोई कविता नहीं सिर्फ मन के भाव है जो कल रात मेरी किताब में रखी इक पुरानी फोटो देख कर आये....प्रस्तुत है ****

मेरी किताब के वो रुपहले पन्ने" 
जो अनछुए ही रह गए
मेरे अब तक के जीवन में 
जिन्हें, पढने का समय ही नहीं मिला 
या यूँ कहे की 
जिंदगी की आप धापी में,
कही गुम से हो गए शायद  

न जाने कब से 
संभाल कर रखा है,
उन्हें मैंने, 
अपने दिल की अलमारियों में, 
अपनी ही साँसों की तरह, 

आज फिर से 
बंद अलमारियों से 
बुलाते है 'वो'  मुझे 
उन छुटे हुए किस्सों को 
समझाने के लिए, 
जो कभी छुट गए थे, मुझसे ,
खीचते है बरबस अपनी ओर 
मै भी खिचा चला जा रहा हूँ 
उसी तरफ 
शायद आज मुझे उनकी ज्यादा जरुरत है 
या उनके लिए मेरे अहसास जाग गए है 

उनका काफिया आज भी वही है  
जो बरसों पहले थे 
बस आज वो मेरे हिस्से के लगते है 
जो कभी पराये से लगे थे 
वो नहीं बदले, न बदली उनकी तासीर 
बदला तो केवल मेरा नजरियाँ 
"मेरी किताब के वो रुपहले पन्ने"

अमर''........

Monday, April 2, 2012

"नगर वधु"


१-
नहीं आसरा,
मंजिल का अब, 
न किसी पड़ाव की जरुरत है मुझे 
जो भी रुका, मंजिल बना 
जो चला गया 
वो कुछ पल का रहबर बना 

२-
न मेरी कोई डगर है 
न मेरा कोई नगर है यहाँ 
जिस राह भी तुम ले चलो 
वो ही डगर अपनी 
जिस नगर  में तुम रुको 
वो ही नगर अपना है यहाँ 

३-
न यहाँ की  बस्ती मेरी 
न यहाँ के लोग मेरे 
जिसने जहाँ भी रखा मुझे 
उसी का घर मेरा घर बना 

"ऐ समाज के पुरोधा 
अब तुम ही बताओ, 
मै क्या हूँ ????"

अमर*****     
नगर वधु- तवायफ़ 

Saturday, March 24, 2012

सच्चा प्रेम ?



आज वो बात कहाँ, वो लोग कहाँ
उनसे हुई वो, पहली मुलाकात कहाँ ?

बचे है तो सिर्फ, कागज पे लिखे बोल प्यार के ,
प्यार करने वाले, वो लोग अब बचे है कहाँ ?

ये नसीब की बात नहीं, ये अमावस की रात नहीं
ये तो इक खामोशी है , इसको सुनने वाले अब मिलेंगे कहाँ ?

वो लरजते हांथो से लिखे महकते ख़त कहाँ
बचे है अब प्यार की बारिश में खिलने वाले वो फूल भी कहाँ ?

रिसते जख्मो से बहे लहू का अब रंग लाल है कहाँ
मिले थे जिस प्रेम से कन्हैया अपने सुदामा से, वो प्रेम भी अब बचा है कहाँ ?
'अमर' 

Monday, March 19, 2012

तो डर लगा !


कल रात
हुई 
जोर की बारिश 
बाद, तुम्हारे जाने के, 
तो डर लगा !

आज घर  
में
फिर, चूल्हा न जला 
गीली लकड़ियों से 
तो डर लगा !

वो भूखे बैठे,
पेट पकडे 
कुलबुलाते नंगे 
मेरे बच्चे,  
तो डर लगा !

तुम्हारे आने की आहट
सुनी, कई बार मैंने 
मगर 
तुम न आये 
तो डर लगा !

सांझ ढले 
सबसे छिपते छिपाते 
मै बेचने निकली 
तुम्हारे घर की इज्जत 
तो डर लगा !
अमर ****

Friday, March 2, 2012

अनवरत पल



ये दिन  रात के अनवरत पल 
उसमे जलता ये
मेरा मन 
जो खोजता है, अपने लिए 
इन न रुकने वाले अनवरत पलों में 
कुछ रुके हुए पल 

सहकर ढेरो यातनाये
मैंने ही तुम्हे उपमान से उपमेय बनाया
देवता तो तुम कबके थे  मेरे लिए 
अब मैंने तुम्हे अपना बनाया

फिर भी तुम लेते रहे हर पल 
परीक्षाये मेरी ,
अपने मन की ज्वाला को
शांत करने के लिए 
मुझे ही तपाया अग्नि में,
बार- बार, कई- बार  
मै भी क्या करती 
देती रही अग्नि परीक्षा बार-बार, कई-बार 
फिर भी मै सीता न बनी 
और तुम राम न बने ,

कहाँ पे, 
क्यों और क्या दोष था मेरा  
कभी तुमसे बताया न गया 
और हममे पूछने का साहस न हुआ
हर जन्म बस यही  सिलसिला चलता रहा 
तुम राम न बने 
और मै सीता न बन सकी 

बस ऐसे ही वक्त बीतता रहा 
और मै तलाशती रही,
उसी रुके हुए पल को 
जो सिर्फ मेरे लिए हो 
पर इन न रुकने वाले पलों में 
मेरे लिए वक्त किसके पास था 
न ये वक्त ही रुका 
और न तुम ही रुके 

चलता रहा वक्त
और जलती रही मै 
कभी सूरज बन 
तो कभी चाँद बन, 
रौशनी तो सबने दी मुझे 
कभी जुगनू 
तो कभी आग बन 
फिर भी मै सीता न बनी 
वो राम न बना 

न मुझको ही था पता 
न तुम्हे ही था यकीं 
कहा से हम चले 
कहा पे हमकों जाना है 
अगर था  तो सिर्फ  इतना पता 
इन अनवरत पलो में 
कुछ पल के लिए 
हमे इक दुसरे के लिए 
ठहर जाना है 
बस कभी वक्त न मिला 
कभी हम न मिले 

ये दिन  रात  के अनवरत पल 
उसमे जलता ये
मेरा मन 

'अमर'

Monday, February 27, 2012

"कुछ ख्वाब- कुछ मंजिले"



कल रात
लिखते लिखते 
आँख लग गयी
ख्वाब आ गये ,
जो चुभने  से लगे
मेरी ही आँखों में,
ये कैसे ख्वाब
जो मेरे होकर मुझे ही चुभे ******

कही  दूर, कही पास  
बहुत दौड़ भाग 
मंजिल पाने को 
मिल भी गयी 
वो खुश भी बहुत हुआ 

पर ये क्या 
मै भी तो साथ था 
बहुत दौड़ा 
उसके पीछे पीछे 
जिसने मंजिल को पाना चाहा
पर मेरी मंजिल कहाँ....... 

ये कैसे ख्वाब 
ये कैसी मंजिले 
जो  मेरे होकर भी 
मेरे नहीं ******

Friday, February 17, 2012

मेरा शहर



मदमस्त हवाओ से भरा 
ये मेरा शहर 
आज मेरे लिए ही बेगाना क्यू है 
हर तरफ
महकते फूल, चहकते पंक्षी 
फिर मुझे ही 
झुक जाना  क्यू है 

आज फिर इक चुप्पी सी साधी है 
इन हवाओ ने,
मेरे लिए
नहीं तो कोई,
दूर फिजाओ में जाता क्यू है 

छुपा रहा है
हमसे कोई राज, ये पवन 
नहीं तो और भी है,
इसकी राहों में 
ये इक हमी को तपाता क्यू है 

आज बड़ा खुदगर्ज, बड़ा मगरूर
सा लगता है ये मेरा शहर 
शायद इसकी मुलाकात हुई है  'उनसे'
नहीं तो ये हमी को जलाता क्यू है 

'अमर' जरूर,  रसूख 
कुछ कम हुआ है शायद  
वरना ये अपना हुनर 
हमी पे  दिखाता क्यू है 

Wednesday, February 1, 2012

"सीलती यादें "


मै  हूँ  
सृष्टि  की  एक  
अद्भुत  विडंबना 
शायद इसीलिए 
जो  भी  गुजरा पास  से  
कुछ  खरोचें  ही  दे  गया  
दामन  में  मेरे  
जो सदियों सीलती रही 
भिगोती  रही  मेरी  अंतर्रात्मा  को       

पता  नहीं  
तुमने   मेरी  
खोखली  होती  जड़े  
देखी  या  नहीं , 
मेरी  साखो  पे  बने  वो  घोसले  
जो  कभी  आबाद  थे पंक्षियों की  चहचहाहट   से  
उनकी  वीरानिया तुमने समझी  या  नहीं,  

तुम भी आकर बैठे 
औरों की तरह मेरी छाँव में 
कुछ  कंकड़  भी  उछाले, मेरी ओर तुमने   
अपनी  बेचैनी  को  दूर  करने  को.........  
तुम्हे  तो  बस 
कुछ  पल  गुजारने थे................   
मेरे दामन में 
जो  गुजार  दिए  तुमने 
दे  गए  तो  बस  
उलटे कदमो  के  निशान  जाते  जाते  

सब  मुसाफिर ही थे 
ये जानकर भी मैंने किसी को मुसाफिर न समझा 
और कोई ठहरा भी नहीं 
यहाँ मेरा 
 
हमराह बनके 

Tuesday, January 24, 2012

आखिर कब बदलोगे तुम ??????



बार बार
हर बार ,
मैंने बात तुम्हारी मान ली
तुमने सूरज को चाँद कहा
मै उसमे भी तुम्हारे साथ चली


तुमने जब भी चाहा
तुम्हारी बाँहों में
पिघल पिघल सी गयी ,
तुम्ही को पाकर जिवंत हुई
तुम्ही को पाकर मर - मर सी गयी
पर तुम नहीं बदले !
तुम आज भी वहीँ हो
जो सदियों पहले थे
जिसके लिए औरत,
कल भी एक भोग्या थी
आज भी एक भोग्या है
तुम्हारा कोई दोष नहीं
दोष तुम्हारी सोंच का है
जो कल भी नहीं बदली थी
आज भी नहीं बदली


कितने ही तरीको से
कितनी ही बातें कर लो तुम,
पर नहीं बदलेंगे
तुम्हारे उपमान हमारे प्रति
क्योंकि तुम आदमी हो
उपर से दिखते हो
फौलाद से मजबूत
पर अंदर से
उतने ही खोखले हो


औरत कल भी औरत थी
आज भी औरत है
उसने कल भी
तुम्हे चाहा था
आज भी तुम्हे पूजा है
रही कभी निर्जल तुम्हारे लिए
तो कभी तुम्हारे लिए दुआएं मांगी
इक तुम ही हो जिसने कभी उसे भरे समाज नंगा किया
तो कभी उसके लिए दहेज़ की वेदी मांगी


तुम कल भी वही
आज भी वही हो
तुमने उसे बाजार में देखा था
आज घर में देखा है
तुम्हारे निगाहें वही
अंदाज
अनोखा है


बार बार
हर बार ,
मैंने बात तुम्हारी मान ली
तुमने सूरज को चाँद कहा
मै उसमे भी तुम्हारे साथ चली


आखिर कब बदलोगे तुम ??????

Thursday, January 12, 2012

तुम तक आने का रास्ता


बुझने  से  पहले,   
मेरी  आखिरी  लौ  को 
इक रात, तुमने ही तो
अपने हथेलियों की गुफाओ में  छुपाया था  मुझे,  
"उसी दिन मै बस गयी थी तुम्हारे हाथो की लकीरों में 
पर आज भी नहीं ढूँढ पायी 
उन लकीरों से होकर तुम तक आने का रास्ता" 

उस  रात शायद  तुम्हे  
जरूरत  थी  मेरी  रौशनी  की  
कुछ  अँधेरा  सा  था  घर में तुम्हारे .........
तुम  कुछ  सकुचाये -सकुचाये से  
कुछ  घबराये  से  थे  
तब  मै  साथ  थी  तुम्हारे 
रोशन कर    गयी थी    तुम्हारे हा तुम्हारे  घर  को  
अपनी  ही  रौशनी  से , 
दूर  कर  दी  थी  तुम्हारी  उस  रात  की  उलझन  
अपने  निश्चल प्रेम के प्रकाश पुंज  से  
जगमगा  उठे  थे  जिसकी रौशनी में तुम,  

मेरी चाहत थी  तुम्हे संग अपने जगमगाने की 
न छोड़ने  की उन अँधेरी कंदराओ में तुम्हे , 
जहा दर्द से सीले अँधेरे  खीचते है अपनी ओर,
जहा जाने के बाद लौट आना सपनो सी बात, 
थी मै इक नन्ही शमा, इरादे फौलाद से मेरे, 
और  मेरा  वही  कोना  
जहा  मै  जलती  रही  अपनी  उम्र  भर , 
निहारती  रही  
सिर्फ  तुम्हे , सिर्फ  तुम्हे , क्योकि 
"बुझने  से  पहले,   
मेरी  आखिरी  लौ  को 
इक रात, तुमने ही तो
अपने हथेलियों की गुफाओ में  छुपाया था  मुझे "

अटूट प्रेम से निहारा  था 
कभी, तुमने  मुझे 
अँधेरी रातों में,  
कितनी ही देर तक, 
मुझे वो पल भुलाये नहीं भूलते 
वो इक - इक पल तुम्हारे संग बिताये हुए 
मुझे अब भी याद  है जब तुम .............

फिर  एक  दिन...........
जो मेरे जीवन का अंतिम दिन था ,
तुम्हे  लगा  होगा  
अब  ख़त्म  होने  वाली  है  
तुम्हारे  जीवन  में  प्रकाश  फ़ैलाने  वाली मेरी रौशनी  
या मेरी  रौशनी में  अब वो चमक नहीं रही
जो तुम्हे आकर्षित कर सके, 
रास्ता दिखा सके तुम्हे घने अंधेरो में 
जिसे तुमने ही बचाया था इक रोज............  
मेरी  लौ 
मेरी  अंतिम कापती लौ  से  पहले  
तुम्हे करना था  कुछ  इन्तजाम ,
ये ही सोच कर 
तुमने अपलक निहारा मुझे  ,
सोचकर, जब  ये  न  होगी,  
तो  कैसे  रोशन  होगा  तुम्हारा  जीवन, 
मै  कुछ  पल  और  जलती  
या  शायद  कुछ  पल  और .............
पर तुम्हारी अतृप्त अभिलाषाओ ने 
तुम्हे मजबूर किया होगा ,
मुझे मिटाने के लिए 
या शायद मेरी रौशनी फीकी पड़ गयी होगी, 
तुम्हारे विश्वास के आगे   
कुछ कापी सी होगी, मेरी लौ 
या कुछ तेज सी हो गयी होगी 
अपने अंतिम पहर से पहले 
और  तुमने डर के  अँधेरे से 
इक नयी शमा जलाई  होगी
ख़त्म कर दिया  मेरा अस्तित्व 
फिर उसी तरह , उसी जगह 
इक दूसरी शमा जलाकर 
जैसे तुमने मुझे जलाया था............ 
बुझ गयी मै, सब कुछ सहे  
बिन कुछ कहे, 
ये ही मेरी आखिरी इच्छा थी 
अपने अंतिम समय तक तुम्हे रोशन करने की 
तुम्हे उदीयमान देखने की हमेशा हमेशा , क्योकि 
"बुझने  से  पहले,   
मेरी  आखिरी  लौ  को 
इक रात, तुमने ही तो
अपने हथेलियों की गुफाओ में  छुपाया था  मुझे"  
उसी दिन मै बस गयी थी तुम्हारे हाथो की लकीरों में 
पर आज भी नहीं ढूँढ पायी 
उन लकीरों से होकर तुम तक आने का रास्ता  "