मै हूँ
सृष्टि की एक
अद्भुत विडंबना
शायद इसीलिए
जो भी गुजरा पास से
कुछ खरोचें ही दे गया
दामन में मेरे
जो सदियों सीलती रही
भिगोती रही मेरी अंतर्रात्मा को
पता नहीं
तुमने मेरी
खोखली होती जड़े
देखी या नहीं ,
मेरी साखो पे बने वो घोसले
जो कभी आबाद थे पंक्षियों की चहचहाहट से
उनकी वीरानिया तुमने समझी या नहीं,
तुम भी आकर बैठे
औरों की तरह मेरी छाँव में
कुछ कंकड़ भी उछाले, मेरी ओर तुमने
अपनी बेचैनी को दूर करने को.........
तुम्हे तो बस
कुछ पल गुजारने थे................
मेरे दामन में
जो गुजार दिए तुमने
दे गए तो बस
उलटे कदमो के निशान जाते जाते
सब मुसाफिर ही थे
ये जानकर भी मैंने किसी को मुसाफिर न समझा
और कोई ठहरा भी नहीं
यहाँ मेरा
हमराह बनके