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Friday, March 2, 2012

अनवरत पल



ये दिन  रात के अनवरत पल 
उसमे जलता ये
मेरा मन 
जो खोजता है, अपने लिए 
इन न रुकने वाले अनवरत पलों में 
कुछ रुके हुए पल 

सहकर ढेरो यातनाये
मैंने ही तुम्हे उपमान से उपमेय बनाया
देवता तो तुम कबके थे  मेरे लिए 
अब मैंने तुम्हे अपना बनाया

फिर भी तुम लेते रहे हर पल 
परीक्षाये मेरी ,
अपने मन की ज्वाला को
शांत करने के लिए 
मुझे ही तपाया अग्नि में,
बार- बार, कई- बार  
मै भी क्या करती 
देती रही अग्नि परीक्षा बार-बार, कई-बार 
फिर भी मै सीता न बनी 
और तुम राम न बने ,

कहाँ पे, 
क्यों और क्या दोष था मेरा  
कभी तुमसे बताया न गया 
और हममे पूछने का साहस न हुआ
हर जन्म बस यही  सिलसिला चलता रहा 
तुम राम न बने 
और मै सीता न बन सकी 

बस ऐसे ही वक्त बीतता रहा 
और मै तलाशती रही,
उसी रुके हुए पल को 
जो सिर्फ मेरे लिए हो 
पर इन न रुकने वाले पलों में 
मेरे लिए वक्त किसके पास था 
न ये वक्त ही रुका 
और न तुम ही रुके 

चलता रहा वक्त
और जलती रही मै 
कभी सूरज बन 
तो कभी चाँद बन, 
रौशनी तो सबने दी मुझे 
कभी जुगनू 
तो कभी आग बन 
फिर भी मै सीता न बनी 
वो राम न बना 

न मुझको ही था पता 
न तुम्हे ही था यकीं 
कहा से हम चले 
कहा पे हमकों जाना है 
अगर था  तो सिर्फ  इतना पता 
इन अनवरत पलो में 
कुछ पल के लिए 
हमे इक दुसरे के लिए 
ठहर जाना है 
बस कभी वक्त न मिला 
कभी हम न मिले 

ये दिन  रात  के अनवरत पल 
उसमे जलता ये
मेरा मन 

'अमर'