हमारे रिश्ते,
जैसे लोथड़े हो मांस के
खून से सने, लथपथ....
बिखरे,
सड़क किनारे ...
जिन्हें देखते, हम
अपनी ही बेबस आँखों से
बहता हुआ......
वही कुछ दूर पे बैठा
हाफंता,
इक शिकारी कुत्ता ,
जीभ को बाहर निकाले
तरसता भोग -विलासिता को .......
बचे है
पिंजर मात्र,
हमारे रिश्तो के .......
जिनमे अब भी
कही-कहीं,
लटके है
हमारे विश्वास के लोथड़े .....
जिन्हें कुरेद कुरेद के नोचने को,
बेताब,
बैठा कौवा
कांव-कांव करता ,
इक सूखी डाली पर......
दिलो में अभी भी ज़मी गर्द
जिन बेजान रिश्तो की,
उन्हें भी ,
चट कर जाना चाहता है,
दीमक,
अपनी कंदराओ के लिए
कहाँ खो गए है
हम इन रिश्तो के जंगल में
जहा सब दिखावा है
छुई-मुई सी है जिनकी दीवारें
जो मुरझाती है अहसास मात्र
छुवन से ही ....
कोई आये बीते दिनों से
जहाँ,
आज भी इक आवाज काफी है
अंधेरो में उजाले के लिए
दौड़ पड़ते है रिश्तो के
बियाबान - घनेरे जंगल
लेकर उम्मीदों की मशाले
कैसा भी हो मायूसी
पल भर में ही हो जाता है उजाला
ये कैसे रिश्ते है जो
छूटते भी नहीं और टूटते भी नहीं .........
अमर =====