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Tuesday, January 8, 2013

प्रेम या भ्रम


              मै मान भी लूँ
            कि तुम्हे प्यार नहीं मुझसे
            जो भी था,
सब एक छलावा मात्र था
पर इसमें
मेरा तो कोई दोष नहीं
मैंने तो तुम्हे ही चाहा था
चुन लिया था तुम्ही को सदा के लिए

फिर इस बार भी
मै ही सजा क्यूँ भुगतूं 
      हे प्रभु 
तुम बार-बार मुझे ही
क्यूँ चुनते हों
अपनी भृगु दृष्टि के लियें

इसे तुम्हारा प्रेम समझूँ 
      या तुम्हारा उपकार

कैसे कैसे सपने बुने थे
मैंने रेशमी धागों से
तुमने कुछ न सोचा
पल भर में
तोड़ दियें सारें ख्वाब

ये भी न ख्याल आया
इन्ही रेशमी धागों से
बुनी है मेरी साँसों की डोर

तुम तो बस,
तोड़ कर चल दिए
सच !
क्या तुम्हे मुझसे प्यार नहीं
मुझे अब भी ये विश्वास नहीं

अमर====